द्वादश भागों में राहु की स्थिति के अनुसार कालसर्प योग मुख्यतः द्वादश प्रकार के होते हैं |
अनंत, कुलिक, वासुकी, शंखपाल, पदम, महापद्मा, तक्षक, कर्कोटक, शंखचूड़, घातक, विषधर एवं शेषनाग
यह योग उदित अनुदित भेद से दो प्रकार के होते हैं राहु के मुख्य में सभी सातों ग्रह ग्रसित हो जाए तो उदित गोलार्ध नामक योग बनता है एवं राहु की पृष्ठ में यदि सभी ग्रहों को अनुदिन गोलार्ध नामक योग बनता है |
यदि लग्न कुंडली में सभी सातों ग्रह राहु से केतु के मध्य में हो लेकिन अंशा अनुसार कुछ ग्रह राहु-केतु की दूरी से बाहर हो तो आंशिक कालसर्प योग कहलाता है यदि कोई एक ग्रह राहु-केतु की दूरी से बाहर हो तो भी आंशिक कालसर्प योग बनता है |
यदि राहु से केतु तक सभी भावों में कोई न कोई ग्रह स्थित हो तो यह योग पूर्ण रूप से फलित होता है यदि राहु केतु के साथ सूर्य या चंद्र हो तो यह योग अधिक प्रभावशाली होता है यदि राहु सूर्य व चंद्र तीनों एक साथ हो तो ग्रहण काल सर्प योग बनता है इसका फल हजार गुना अधिक हो जाता है ऐसे जातकों को कालसर्प योग की शांति करवाना अति आवश्यक होता है |